ज्वार-भाटा -Tides, ज्वार-भाटा के प्रकार -Types of Tides

ज्वार-भाटा (Tides)

         परिचय (Introduction)

ज्वार-भाटा एक प्राकृतिक घटना है । महासागरीय गतियों में लहरें, तरंगें, धाराएँ तथा ज्वार-भाटा अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं । सूर्य तथा चन्द्रमा की आकर्षण शक्तियों के कारण सागरीय जल के ऊपर उठने तथा गिरने को ज्वार-भाटा कहते हैं।

समुद्री जल की गतियों में ज्वार-भाटा का सर्वाधिक महत्त्व है, क्योंकि इसके कारण समुद्री जल का प्रत्येक भाग अर्थात् समुद्र जल से लेकर नित्तल तक का जल प्रभावित होता है। सागरीय जल एक दिन (24 घंटे) में दो बार ऊपर उठता है और दो बार नीचा हो जाता है । पृथ्वी, चन्द्रमा और सूर्य के गुरुत्वीय अंतराकर्षण से उत्पन्न सागरीय जल के इस Rhythmic periodic motion को ज्वार-भाटा कहते हैं। ऊपर उठकर तट की ओर बढ़ने की गति को ज्वार (Tide) तथा नीचे गिरकर सागर की ओर लौटने की गति को भाटा (Ebb) कहा जाता है। इस क्रमिक गति के कारण उत्पन्न तरंगों को ज्वारीय तरंग कहा जाता है। इसके कारण सागरीय जल के तल में परिवर्तन होता है ।

ज्वार के समय निर्मित उच्च जल-तल को उच्च ज्वार तथा भाटा के समय निर्मित निम्न जल-तल को निम्न ज्वार कहते हैं। उच्च ज्वार एवं निम्न ज्वार के बीच औसत सागर तल (Mean Sea Level) होता है । यद्यपि ज्वार-भाटा समुद्री जल का लम्बवत् उठान है, किन्तु जल की तरलता के कारण यह लम्बवत् उठान तट के किनारे क्षैतिज गति का स्वरूप ले लेता है। ज्वार-भाटा की ऊँचाई होती है जिसे निम्न ज्वार और उच्च ज्वार की ऊँचाई में अंतर के आधार पर मापा जा सकता है । भिन्नता है।

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          ज्वारीय शक्ति (Tidal Force)

प्रतिदिन दो बार होनेवाले उछाल और गिरावट का सम्बन्ध खगोलीय पिण्डों से माना जाता है । इस सम्बन्ध का प्रथम वैज्ञानिक विश्लेषण न्यूटन ने (1687 ई० में अपने संतुलन सिद्धान्त में प्रस्तुत किया था । इस सिद्धान्त के अनुसार सभी खगोलीय पिण्ड एक-दूसरे को परस्पर आकर्षित करते हैं और इस क्रिया में जो बल कार्य करता है, वह उनके परिमाण का समानुपाती एवं उनकी आपसी दूरी के वर्ग का व्युत्क्रमानुपाती होता है। इसी आकर्षण बल के कारण खागोलीय पिण्डों का संतुलन कायम रहता है । इस सिद्धान्त का तात्पर्य यह है कि जो पिण्ड जितना नजदीक होगा, उसका आकर्षण बल उतना ही अधिक होगा ।

पृथ्वी पर भी ब्रह्माण्ड के प्रत्येक खगोलीय पिण्ड के आकर्षण बल का प्रभाव पड़ता है । किन्तु चन्द्रमा और सूर्य को छोड़कर अन्य पिण्डों की दूरी पृथ्वी से बहुत अधिक होने के कारण उनका प्रभाव नगण्य होता है । इन दो पिण्डों में भी चन्द्रमा सबसे नजदीक है, इसलिए ज्वार-भाटा की उत्पत्ति का प्रत्यक्ष सम्बन्धं चन्द्रमा से है । चन्द्रमा से सूर्य का आकार बड़ा है, किन्तु इसके बावजूद पर्याप्त दूरी पर स्थित होने के कारण चन्द्रमा की तुलना में उसका ज्वारीय प्रभाव लगभग आधा है । चूँकि पृथ्वी एक ऐसा खगोलीय पिण्ड है जिसका 71 प्रतिशत धरातल तरल सतह है, इसलिए इसका तरल सतह वाला धरातल (महासागरीय और सागरीय भाग) अन्य खगोलीय पिण्डों के आकर्षण बल से प्रभावित होता है । इस प्रकार स्पष्ट है कि पृथ्वी के महासागरीय एवं सागरीय जल में ज्वार-भाटे की उत्पत्ति चन्द्रमा तथा सूर्य के आकर्षण बलों के द्वारा होती है । किन्तु यह प्रत्यक्ष चन्द्रमा से ही जुड़ी होती है ।

चन्द्रमा से पृथ्वी के केन्द्र एवं समुद्र तट की इस दूरी से आकर्षण शक्ति का प्रभाव निर्धारित होता है। चन्द्रमा के सामने स्थित भाग, जो चन्द्रमा से न्यूनतम दूरी पर होता है, पर चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति है।

प्यार-भाटा का सर्वाधिक प्रभाव होता है, जबकि पृथ्वी के केन्द्र पर उसका प्रभाव कम और चन्द्रमा के ठीक पीछे स्थित भाग जो चन्द्रमा से सबसे दूर होता है, पर न्यूनतम होता है। परिणामस्वरूप चन्द्रमा के सामने स्थित पृथ्वी का जल इसके आकर्षण बल के प्रभाव से ऊपर खिंच जाता है, जिसके कारण उच्च ज्वार अनुभव किया जाता है। किन्तु ठीक इसी समय इस स्थान के ठीक पीछे भी उच्च ज्वार उत्पन्न होता है, जिसका कारण पृथ्वी के वृतीयगति में होने के फलस्वरूप उत्पन्न केन्द्राप्रसारी बल होता है। इस प्रकार, एक समय में दो ज्वार उत्पन्न होते हैं एक चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति के प्रत्यक्ष प्रभाव और दूसरा उसके विपरीत केन्द्राप्रसारी बल के चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति से अधि क शक्तिशाली होने कारण होता हैं। चन्द्रमा का आकर्षण बल दूरी के अनुसार क्रमशः कम होता जाता है और पृथ्वी के उस धरातल पर जो चन्द्रता के विपरीत होता है, वहाँ न्यूनतम होता है ।

          ज्वार का समय (Time of Tides)

प्रत्येक स्थान पर सामान्य तौर पर दिन में दो बार ज्वार आता है। चूँकि पृथ्वी 24 घंटे में अपने अक्ष पर एक घूर्णन पूरा करती है, इसलिए प्रत्येक स्थान पर ठीक 12 घंटे बाद ज्वार उत्पन्न होना चाहिए। एक चन्द्रमा के- सामने रहने पर प्रत्यक्ष प्रभाव से और दूसरा 12 घंटे बाद ठीक विपरीत स्थिति में होने पर केन्द्राप्रसारी बल के प्रभाव से। लेकिन ऐसा नहीं होता। किसी स्थान पर ज्वार प्रतिदिन दोनों बार उसी समय पर न आकर 26 मिनट देर से आता है । अर्थात् एक ज्वार के आने के 12 घंटे 26 मिनट बाद दूसरा ज्वार आता है। पृथ्वी पश्चिम से पूरब दिशा में चक्कर लगाती है, परिणामस्वरूप ज्वार-केन्द्र पश्चिम से पूरब दिशा की ओर अग्रसर होते हैं ।

एक चन्द्रमास 27 दिन, 7 घंटे, 43 मिनट, 17½ सेकेण्ड अर्थात् लगभग 27½ दिन का होता है जिसके दौरान वह पृथ्वी का एक चक्कर पूरा कर लेता है। पृथ्वी व चन्द्रमा की परिभ्रमण दिशा एक ही है । फलस्वरूप पृथ्वी पर ज्वार केन्द्र पश्चिम से पूरब दिशा की ओर निरंतर अग्रसर होता है । ज्वार केन्द्र 24 घंटे में एक चक्कर पूरा करता है, किन्तु इसी अवधि में चन्द्रमा अपनी कक्षा से थोड़ा आगे बढ़ चुका होता है । फलतः उस ज्वार-केन्द्र पर ठीक 24 घंटे बाद ज्वार नहीं उत्पन्न हो पाता है। ज्वार-केन्द्र को चन्द्रमा के नीचे पुनः पहुँचने में 52 मिनट का अतिरिक्त समय लगता है । अर्थात् ज्वार- केन्द्र 24 घंटे 52 मिनट बाद चन्द्रमा के सामने पहुँचता है और चन्द्रमा के प्रत्यक्ष प्रभाव से पुनः उस ज्वार केन्द्र पर ज्वार उत्पन्न होता है । इस तरह, पृथ्वी के धरातल के किसी स्थान (ज्वार केन्द्र) पर प्रत्येक 12 घंटे 26 मिनट बाद ज्वार एवं प्रत्येक ज्वार के 6 घंटा 13 मिनट पर भाटा की स्थिति बनती है।

          ज्वार-भाटा पर सूर्य का प्रभाव (Effect of Sun on Tides)

यद्यपि सूर्य का द्रव्यमान चन्द्रमा से लगभग ढाई करोड़ गुना अधिक है, फिर भी पृथ्वी से उसकी अधिक दूरीके कारण पृथ्वी के केन्द्र पर लगने वाला सूर्य का आकर्षण बल चन्द्रमा के आकर्षण बल का मात्र 169 गुना अधिक होता है । ज्वारों की उत्पत्ति आकर्षण बल पर निर्भर नहीं करती, बल्कि उसके लिए एक ओर पृथ्वी के केन्द्र पर लगने वाले आकर्षण बल तथा दूसरी ओर पृथ्वी के निकटतम और दूरतम बिन्दुओं पर लगने वाला आकर्षण बल का अन्तर उत्तरदायी होता है । इस प्रकार किसी आकाशीय पिण्ड का ज्वारोत्पादक बल उसकी दूरी के धन का विलोमानुपाती होने के कारण ज्वार-भाटा की उत्पत्ति में चन्द्रमा का स्थान प्रमुख तथा सूर्य का गौण है । किन्तु यह अवश्य सत्य है कि सूर्य के ज्वारोत्पादक बल के कारण महासागरों में उत्पन्न ज्वार और भाटे कुछ अंशों में अवश्य प्रभावित होते हैं।

          ज्वार-भाटा के प्रकार (Types of Tides)

पृथ्वी, चन्द्रमा तथा सूर्य की सापेक्ष स्थितियों में अन्तर के कारण ज्वारोत्पादक बलों में विभिन्नता पाई जाती है । अतः पृथ्वी पर विभिन्न महासागरों तथा उनके भिन्न-भिन्न भागों में उत्पन्न होनेवाले ज्वार-भाटे में एकरूपता का अभाव पाया जाता है । अतः ज्वार-भाटा विभिन्न प्रकार के होते हैं। प्रमुख ज्वार-भाटा-

          (i) दीर्घ ज्वार (Spring Tide)

जब सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों पृथ्वी के एक ओर होते हैं तो उसे (युति (Conjuction) कहते हैं और जब सूर्य तथा चन्द्रमा के बीच पृथ्वी की स्थिति होती है तो उसे वियुति (Opposition) कहते हैं। युति की स्थिति अमावस्या तथा वियुति की स्थिति पूर्णमासी की होती है। इन दो स्थितियों में सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा की एक सीधी रेखा में स्थिति होने के कारण चन्द्रमा तथा सूर्य के आकर्षण बल के साथ मिलकर कार्य करते हैं, जिस कारण उच्च ज्वार उत्पन्न होता है । इस ज्वार की ऊँचाई सामान्य ज्वार से 20% अधिक होती है । इस तरह दीर्घ ज्वार महीने में दो बार पूर्णमासी तथा अमावस्या को आते हैं। दीर्घ ज्वार के समय भाटा की निचाई सर्वाधिक होती है। सूर्य तथा चन्द्रमा की सापेक्ष स्थितियों में परिवर्तन होता रहता है । जब सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा एक सरल रेखा में होते हैं, तो इस स्थिति को सिजगी (Syzygy) कहते हैं। ऐसी स्थिति अमावस्या तथा पूर्णिमा को होती है।

          (ii) लघु ज्वार (Neap Tide)

जब सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा समकोण की स्थिति में होते हैं, तो उसे समकोणिक स्थिति (Quadrature) कहते हैं । प्रत्येक मास की शुक्लपक्ष तथा कृष्णपक्ष की सप्तमी और अष्टमी को सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा समकोणिक स्थिति में होते हैं । परिणामस्वरूप सूर्य तथा चन्द्रमा के ज्वारोत्पादक बल एक-दूसरे के विपरीत कार्य करते हैं, जिस कारण सामान्य ज्वार से भी नीचा ज्वार आता है, इसे लघु ज्वार कहते हैं । यह सामान्य से 20% नीचा होता है।

           (iii) अपभू ज्वार (Apogee Tide)

चन्द्रमा दीर्घवृत्तीय कक्षा में पृथ्वी की परिक्रमा करता है । अतः वह कभी पृथ्वी के निकट, तो कभी उससे दूर स्थित होता है । जब चन्द्रमा पृथ्वी से अधिकतम दूरी (4,07,000 km) पर स्थित होता है, तो उसे अपभू स्थिति कहते हैं । इस स्थिति में उत्पन्न हुए ज्वार को अपभू ज्वार कहते हैं । इस समय चन्द्रमा का ज्वारोत्पादक बल न्यूनतम होता है, जिस कारण लघु ज्वार उत्पन्न होता है, जो कि सामान्य से 20% कम होता है।

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          (iv) उपभू ज्वार (Perigee Tide )

जब चन्द्रमा पृथ्वी के निकटतम दूरी पर होता है, तब उसे उपभू स्थिति (3,56,000 km) कहते हैं । इस स्थिति में चन्द्रमा का ज्वारोत्पादक बल सर्वाधिक होता है, जिस कारण उच्च ज्वार उत्पन्न होता है, जो कि सामान्य से 20% अधिक होता है, तो इसे उपभू ज्वार कहते हैं । जब कभी दीर्घ ज्वार तथा उपभू ज्वार एक साथ आते हैं तो ज्वार की ऊँचाई असामान्य हो जाती है । इसी तरह जब लघु ज्वार तथा अपभू ज्वार एक साथ आते हैं, तो असामान्य रूप से नीचा ज्वार उत्पन्न होता है ।

          (v) दैनिक ज्वार (Daily Tide)

किसी स्थान पर एक दिन में आनेवाले एक ज्वार तथा एक भाटा को दैनिक ज्वार-भाटा कहते तरह का ज्वार चन्द्रमा के झुकाव के कारण होता है।

          (vi) अर्ध-दैनिक ज्वार (Semi Daily Tide)

किसी स्थान पर प्रत्येक दिन में दो बार आनेवाले ज्वार को अर्द्ध-दैनिक ज्वार कहते हैं । प्रत्येक ज्वार 12 घंटा 26 मिनट बाद आता है ।

          (vii) मिश्रित ज्वार (Mixed Tide)

किसी स्थान पर आनेवाले असमान अर्द्ध-दैनिक ज्वार को मिश्रित ज्वार कहते हैं । अर्थात् दिन में दोनों ज्वारों की ऊँचाई दूसरे ज्वार की अपेक्षा कम तथा एक भाटा की निचाई भी दूसरों की अपेक्षा कम होती है ।

          (viii) भूमध्यरेखीय ज्वार (Equatorial Tide)

जब चन्द्रमा भूमध्य रेखा के ठीक ऊपर स्थित होता है तब वहाँ उत्पन्न दोनों उच्च ज्वारों तथा दोनों निम्न ज्वारों की ऊँचाइयों में समानता पाई जाती है। इन ज्वारों को भूमध्यरेखीय ज्वार कहते हैं ।

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