ज्वार भाटा की उत्पत्ति के सिद्धान्त –Theory of Tides
ज्वार-भाटा की उत्पत्ति मुख्यतः चन्द्रमा और उससे भी दूर सूर्य की आकर्षणशक्ति के प्रति सागर के अस्थिर जल की प्रतिक्रिया से ज्वार की उत्पत्ति मानी जाती है । ज्वार-भाटा को उत्पन्न करनेवाले बलों को निर्धारित करना वास्तव खगोलीय समस्या है । इस समस्या का समाधान अत्याधिक जटिल गणितीय समीकरणों की सहायता से की जाती है और इस कार्य के लिए वैज्ञानिकों ने. भौतिकी एवं द्रव्यगति विज्ञान के नियमों से सहायता ली है । वस्तुत: ज्वारोत्पादक बलों की क्रियाविधि को निर्धारित करना ही महासागरीय ज्वारों की उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्तों की प्रमुख समस्या है। ज्वार भाटा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक सिद्धान्त हैं जिनमें न्यूटन का संतुलन सिद्धान्त, विलियम व्हेवेल का प्रगामी तरंग सिद्धान्त एवं डॉ० हैरिस का स्थैतिक तरंग सिद्धान्त उल्लेखनीय है । कोई भी सिद्धान्त ज्वार-भाटा की जटिलता को सुलझाने में पूर्णरूपेण सफल नहीं हो सकता है ।
न्यूटन का संतुलन सिद्धान्त (Equilibrium Theory)
इसका प्रतिपादन सर आइजन न्यूटन ने (1687 ई० में अपनी पुस्तक “PRINCIPIA”) में किया था । यह सिद्धान्त गुरुत्वाकर्षण के इस नियम पर आधारित हैं कि ब्रह्माण्ड में प्रत्येक वस्तु में आकर्षण बल होता है जिसके कारण वे एक-दूसरे को अपनी ओर खींचते हैं । इस परस्पर आकर्षण के ही कारण वे अपनी कक्षा में सन्तुलन की स्थिति में बने रहते हैं। लेकिन उनका यह आकर्षण बल परिमाण एवं दूरी पर निर्भर करता है । जो पिण्ड जितना नजदीक होता है, उसका आकर्षण बल उतना ही अधिक होता है ।
पृथ्वी के सबसे नजदीक चन्द्रमा के होने के कारण उसके आकर्षण बल का पृथ्वी पर सर्वाधिक प्रभाव होता है । इसी से सागरीय जल में ज्वार उत्पन्न होते हैं । सूर्य द्वारा भी ज्वार उत्पन्न होता है, किन्तु चन्द्रमा की तुलना में अत्यधिक परिमाण होने के बावजूद बहुत दूर स्थित होने के कारण पृथ्वी पर उसका ज्वारीय प्रभाव अत्यन्त कम होता है । इस तरह, ज्वार की उत्पत्ति में न्यूटन ने चन्द्रमा को प्रत्यक्ष कारण बताया । इन्होंने स्पष्ट किया कि पृथ्वी पर एक समय में दो ज्वार आते हैं । पहला, चन्द्रमा के ठीक सामने वाले पृथ्वी तल पर और दूसरा, जिस देशान्तर पर चन्द्रमा होता है, उसे ठीक विपरीत पृथ्वी तल पर | चन्द्रमा के सामनेवाले तल पर उसके आकर्षण बल के कारण एवं विपरीत तल पर केन्द्राप्रसारी बल के कारण ज्वार उत्पन्न होते हैं । इन दोनों के लम्ब (Perpendicular) पर दोनों बल एक दूसरे को सन्तुलित कर देते हैं जिसके कारण उत्पन्न बल पृथ्वी के केन्द्र की ओर कार्य करता है । फलतः यहाँ न्यूनतम ऊँचाई के ज्वार उत्पन्न होते हैं । इस तरह चन्द्रमा के निकटतम एवं सबसे दूरस्थ तल पर जल स्तर में सर्वाधिक उछाल एवं लम्बवत् स्थान पर जल-स्तर की सर्वाधिक कमी देखी जाती है, जिसे क्रमशः ज्वार एवं भाटा कहते हैं । चूँकि पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर घूर्णन करती है, इसलिए चन्द्रमा के सामने एवं विपरीत भाग में उत्पन्न ज्वार का शिखर एक तरंग की भाँति पश्चिम की ओर बढ़ता है ।
आलोचना : एक वैज्ञानिक सिद्धान्त होने के बावजूद भी इस सिद्धान्त की आलोचना निम्न कारणों से की जाती है-
(i) समुद्रों में ज्वार एक लहर के रूप में उठता है । अतः यदि पृथ्वी के धरातल पर जल ही जल होता है तो इस सिद्धान्त के क्रियाशील होने की कल्पना की जा सकती है। परन्तु धरातल पर जल एवं स्थल का असमान वितरण है, इसलिए ज्वारीय लहरें चन्द्रमा के साथ पृथ्वी की परिक्रमा करते प्रत्येक देशान्तर पर समान रूप से उत्पन्न नहीं होते हैं । इस लहरों के विस्तार एवं दिशा में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है ।
(ii) समुद्रों की गहराई और नित्तल की रचना एक जैसी नहीं है, जिसका प्रभाव ज्वारीय लहरों की प्रगति पर होता है ।
(iii) पृथ्वी का आकार चौरस न होकर गोलाकार है ।
(iv) समुद्रों में ज्वार-भाटे के अतिरिक्त कई गतियाँ होती हैं। ये गतियाँ ज्वारीय लहर की प्रगति में बाधक होती है ।
(v) ज्वार के समय जल का ऊपर उठना (चन्द्रमा के आकर्षण बल के प्रभाव से) बिना किसी क्षैतिज गति के सम्भव नहीं है
(vi) विपरीत बिन्दु पर (चन्द्रमा के) ज्वार की उत्पत्ति की सही व्याख्या इस सिद्धान्त से नहीं हो पाती ।
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प्रगामी तरंग सिद्धान्त (Progressive Wave Theory) :
ज्वार-भाटा भी अनेक जटिलताओं एवं विसंगतियों के समाधान हेतु सन् 1833 में विलियम ह्वेवेल ने जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, उसे प्रगामी तरंग सिद्धान्त कहा जाता है। इस सिद्धान्त का समर्थन 1842 ई० में जी० बी० एयरी ने अपनी पुस्तक “WAVES & TIDES” में प्रतिपादित “Canal Theory” के द्वारा किया । इन्होंने भी चन्द्रमा को सबसे महत्त्वपूर्ण ज्वारीय शक्ति स्रोत बताया ।
यह सिद्धान्त यह प्रतिपादित करता है कि ज्वार लहर के रूप में होते हैं जो चन्द्रमा से प्रेरित होकर उत्पन्न होती है और अपने उत्पत्ति स्थल से पश्चिम की ओर भ्रमण करती है। (पृथ्वी के घूर्णन के कारण) इन लहरों का उत्पत्ति-स्थल दक्षिणी ध्रुव सागर में 180° देशान्तर को माना गया । यहाँ स्थल के अभाव के कारण चन्द्रमा से प्रेरित ज्वारीय तरंगें पूर्व से पश्चिम दिशा में अग्रसर होने लगती हैं । इन तरंगों को ह्वेवेल ने प्राथमिक तरंग कहा । लेकिन उत्पत्ति स्थल से पश्चिम दिशा में बढ़ने पर महाद्वीपीय अवरोध के कारण गौण तरंगों की उत्पत्ति हो जाती है। गौण तरंगें उत्तर की ओर स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ती है । ये चन्द्रमा से प्रभावित नहीं होती । ये प्रशान्त, अटलांटिक एवं हिन्द महासागर में लगातार उत्तर की ओर बढ़ते हुए अन्ततः उत्तरी ध्रुव सागर में पहुँचकर समाप्त हो जाती है । पुनः गौण तरंगों के मार्ग में अवरोध होने पर उनसे अन्य गौण तरंगों की भी उत्पत्ति हो जाती है। यह सिद्धान्त यह स्पष्ट करता है कि दक्षिण में उत्पन्न लहर के उत्तर पहुँचने में निरंतर देरी होती जाती है, फलतः एक ही देशान्तर पर ज्वार के समय में अंतर आ जाता है । साथ ही, इस क्रम में उनकी आयु में भी वृद्धि होती जाती है । ह्वेवेल ‘के अनुसार इन ज्वारीय लहरों के स्वभाव एवं समय पर महासागर की गहराई एवं तट की बनावट का सर्वाधिक प्रभाव होता है ।
आलोचना :
(i) वैज्ञानिकों ने इस सिद्धान्त के अनुसार ज्वार की आयु उत्तर से दक्षिण बढ़ने की परिकल्पना को गलत बताया है । समय में दो स्थानों पर वृहत् ज्वार देखे गए हैं।
(ii) उत्तर तथा दक्षिण अटलांटिक महासागर में एक कि इस सिद्धान्त के प्रतिकूल हैं ।
(iii) सामान्य रूप में ज्वार स्थानीय तत्त्व होते हैं, इनकी उत्पत्ति को दक्षिणी सागर में मान लेना तथा उनका पुनः उत्तर की ओर अग्रसर न्यायोचित नहीं है ।
(iv) कई महासागरों में एक ही अक्षांश पर दैनिक तथा अर्द्ध-दैनिक दानों प्रकार के ज्वार-भाटे देखे गये हैं । ज्वार भाटा की विभिन्न प्रकारों को स्पष्टीकरण इस सिद्धान्त में नहीं किया गया है । ज्वार-भाटा में यही विभिन्नता प्रगामी तरंग सिद्धान्त की प्रामाणिकता को संदिग्ध कर देती है ।
स्थैतिक तरंग सिद्धान्त (Stationary Wave Theory) :
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन ई० 1928 में आर० ए० हैरिस ने किया था । एक अमेरिकी वैज्ञानिक थे, जिनका मूल उद्देश्य ज्वार-भाटा में निरीक्षण के आधार पर पाई जानेवाली जटिलताओं एवं विसंगतियों का समाधान करना था । प्रगामी तरंग के विपरीत ज्वार-भाटे का यह सिद्धान्त एक प्रादेशिक परिघटना बताता है । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक महासागर में ज्वार-भाटा स्वतंत्र रूप से उत्पन्न होता है न कि प्रगामी सिद्धान्त की मान्यता के अनुसार एक ही स्थान पर ।
हैरिस ने इसके प्रतिपादन के पूर्व एक प्रयोग किया जिसके निष्कर्षों पर यह सिद्धान्त आधारित है। एक आयाताकार बर्त्तन में जल भरकार यदि उसके एक किनारे को हिलाया जाय या झटका दिया जाय तो बर्त्तन में एक किनारे पर जल की सतह ऊपर उठ जाती है तथा दूसरे किनारों पर वह नीची हो जाती है । इस कारण जल में एक कंपन या दोलन प्रारंभ हो जाता है । इस दोलन को स्थायी तरंग कहा गया । दोलन के कारण जल – तल में परिवर्तन (बर्त्तन में) एक सीधी रेखा के सहारे होता है, जहाँ पर जल-तल में कोई अंतर नहीं आता है । इसे उन्होंने निस्पन्द रेखा (Nodal Line) कहा । एक बर्तन में दोलन की क्रिया को उन्होंने समकेन्द्री दोलन प्रणाली कहा। इसी प्रकार दो निसपन्द रेखाओं वाली दोलन प्रणाली को भी उन्होंने अपने प्रयोग से समझाया, जिसमें दो रेखाओं के सहारे जल में गति होती है। इस तरह, विभिन्न आकार के बेसिन में एक, दो या दो से अधिक Nodal Line के साथ स्थैतिक तरंगें उत्पन्न की जा सकती है । इस प्रयोग के आधार पर हैरिस ने बताया कि पृथ्वी के विभिन्न महासागर जलपूर्ण बर्त्तन के समान हैं । इनमें चन्द्रमा एवं सूर्य के ज्वारीय बल के कारण दोलन आरम्भ होता है। किन्तु यह एक सीधी रेखा के सहारे न होकर एक निस्पंद बिन्दु के चारों ओर होता है।
इसके दो कारण हैं- पृथ्वी का गोल आकार एवं उसकी गतिशीलता अर्थात् घूर्णन और परिक्रमण गतियाँ । यह निस्पन्द बिन्दु दोलन के लिए उपयुक्त जलीय खण्ड के केन्द्र में होता है, जिसके चारों ओर जल दोलन करता है। इससे किसी महासागरीय भाग में कई भँवर बिन्दु बन जाते हैं। ऐसे भँवर बिन्दु पर जल शांत और जल-तल समान रहता है। जबकि इसके चारों ओर अशान्त जल होता है और उसके तल में परिवर्तन होता रहता है । भँवर बिन्दु से उठनेवाली तरंगें चारों ओर घड़ी की सूई के घूमने की दिशा के विपरीत चक्कर लगाती है। ये स्थायी तरंगें होती हैं और इनके दोलन का समय भी निश्चित होता है। वे यहाँ से तट की ओर अग्रसर होते हुए निश्चित अवधि के पश्चात् तट पर पहुँचती है जहाँ उसके शिखर के कारण ज्वार तथा द्रोणी के कारण भाटा की स्थिति बनती है। भँवर बिन्दु से उठनेवाली इन तरंगों के स्वभाव का निर्धारण अर्थात् उनके Amplitude और Intensity का निर्धारण कई तथ्यों पर निर्भर करता है । जैसे-
- समुद्र तल से गहराई
- पृथ्वी की घूर्णन गति
- नित्तल का उच्चावच
- तटीय आकृति एवं नित्तल का उच्यावय
किसी महासागर को अनेक बेसिनों में बाँट देता है जहाँ स्वतन्त्र रूप से भँवर बिन्दु बनते हैं और ज्वार उत्पन्न होते हैं । किन्तु इनकी उत्पत्ति पर गहराई का सर्वाधिक नियंत्रण रहता है । बेसिनों की गहराई जितनी अधिक होती है, स्थैतिक तरंगों की ऊँचाई इतनी ही अधिक होती है । यही कारण है कि छिछले सागरों में स्थैतिक तरंगों की कम ऊँचाई के कारण लघु ज्वार आते हैं । यद्यपि ज्वार-भाटा की उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्तों में यह वर्त्तमान में सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है, किन्तु अनेक विद्वान स्थैतिक तरंगों के अस्तित्व से सहमत नहीं है । आलोचकों को मानना है कि ऐसी तरंगें अगर उत्पन्न होती विश्वसनीय है। वस्तुतः यह न्यूटन के सन्तुलन सिद्धान्त के वैज्ञानिक आधार को और भी तर्कपूर्ण बना देता है। हैं तो वे ज्वार को उत्पन्न करने में सक्षम नहीं हो सकती ।
ज्वार-भाटा के प्रभाव (Effects of Tides)
ज्वार-भाटे के कारण सागर-जल आन्दोलित रहता है, जिससे कितने ही पोताश्रय के समीपवर्त्ती सागर जाड़े में जमनें से बच जाते हैं, फलस्वरूप मानव के आर्थिक क्रियाकलाप चलते रहते हैं ।
(i) ज्वार की लहरों में काफी शक्ति होती है, जिससे जल-विद्युत तैयार किया जाता है ।
(ii) भाटे अपने साथ नदियों के मुहाने का कीचड़ बहा ले जाती है, जिससे नदियों का मुहाना सदा खुला रहता है और वहाँ एश्चुअरी बनती है ।
(iii) ज्वार-भाटे से छिछले-सागरों या नदी के मुहानों पर स्थित पतनों को बड़ा लाभ होता है । ज्वार के समय जलवृद्धि होते ही बड़े-बड़े समुद्री जहाज भीतर तक पहुँचकर अपना व्यापार-कार्य करने लगते हैं और भाटे के समय वे वापस चले आते हैं ।
(iv) अनेक उपयोगी वस्तुएँ ज्वार के साथ तट तक बहकर चले जाते हैं और मानव उनसे तरह-तरह के काम लेता है ।