छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियाँ : छत्तीसगढ़ राज्य में कई जातियां और जनजातियां पायी जाती हैं। ये जनजातियाँ अपनी अनूठी जीवन शैली, रीति-रिवाजों और परम्पराओं के लिए जानी जाती हैं। जो निम्न है –
छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियाँ – Chhattisgarh ki pramukh janjatiyan
1. गोंड –
जनसंख्या की दृष्टिकोण से छत्तीसगढ़ राज्य की सबसे बड़ी जनजाति गोंड है। ये मुख्यतः बस्तर, जांजगीर चांपा और दुर्ग जिले में बसें हुऐ है। ‘गोंड’ शब्द तमिल भाषा के शब्द ‘कोंड’ या ‘खोन्द’ से निर्मित हुआ है। इसका अर्थ ‘पर्वत या पहाड़ होता है। गोंड जनजाति स्वयं को गोंड नहीं मानती है। ये लोग खुद को ‘कोयतोर’ कहना ज्यादा पसन्द करते हैं। छत्तीसगढ़ के दक्षिण में स्थित अगम्य पर्वत श्रेणियों में इनकी प्रधानता देखने को मिलती है। बस्तर ज़िले में गोंड आज भी अपनी मूल अवस्था में पाये जाते हैं।
2. कोरबा –
कोरबा जनजाति छत्तीसगढ़ की एक प्रमुख जनजाति है। इस जनजाति के लोग बिलासपुर, सरगुजा और रायगढ़ जिले में बसे हुए है। यह समूह कोलेरियन जनजाति से संबंधित रखती है। इस जनजाति के लोग मुण्डा और सन्थाल जनजाति के समान ही अपना जीवन निर्वाह करते है। इनकी उपजातियो में दिहारिया एवं पहाड़ी कोरबा प्रमुख हैं। पहाड़ी कोरबा को ‘बेनबरिया’ भी कहा जाता है।
3. मारिया –
छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर जिले में मारिया जनजाति का बसाव है। भूमियां, भूईंहार एवं पांडो इस जनजाति की प्रमुख उपजातियाँ हैं। मारिया जनजाति अधिकांशतया पहाड़ी भागों में निवास करती है। ‘भीमसेन’ इन लोगों का मुख्य देवता होता है।
4. हल्वा –
यह छत्तीसगढ़ के रायपुर, बस्तर और दुर्ग जिले में निवास करती है। इनकी उपजातियों में बस्तरिया, भटेथिया, छत्तीसगढ़िया आदि मुख्य है। हल्वा जनजाति की बोलचाल की भाषा पर मराठी प्रभाव देखने को मिलता है। ये लोग अपने शरीर पर कम-से-कम वस्त्रों का प्रयोग करते हैं। इनके रीति-रिवाज हिन्दू जाति से काफी मिलते- जुलते हैं। हल चलाने के कारण इस जनजाति का नाम ‘हल्या’ पड़ा है।
5. कोरकू –
रायगढ़ और जशपुर जिलों में कोरकू जनजाति पायी जाती है। मोवासी, बवारी, रूमा, नहाला, बोडोया आदि कोरकू की प्रमुख उपजातियां हैं। यह मूलतः एक कृषक जनजाति है। ये कृषक जरूरत पड़ने पर मजदूरी का कार्य भी करते है। इसके अतिरिक्त ये लोग वनों से फल मूल और कंद भी एकत्र करने का कार्य करते हैं। कोरकू जनजाति में भूस्वामी कृषकों को ‘राजकोरकू’ और शेष लोग को ‘योथरिया कोरकू’ कहते हैं।
6. बैगा –
राज्य के दुर्ग और बिलासपुर जिलों में वैगा जनजाति का निवास है। ‘बैगा’ शब्द का अर्थ ‘पुरोहित’ होता हैं। इस कारण बैगा लोगों को ‘पंडा’ भी कहा जाता है। ये ‘नागा बैगा’ को अपना पूर्वज मानते हैं।
7. बिंझवार –
यह जनजाति विन्ध्याचल पर्वत के समीप निवास करती है। ये मुख्यरूप से बिलासपुर एवं रायपुर जिलों में रहते है। इनका प्रमुख कार्य कृषि है। ये लोग विन्ध्य वासिनी देवी की पूजा अर्चना करते हैं। ये लोग विन्ध्यवासिनी पुत्र ‘बारह भाई बेटकर’ को अपना पूर्वज मानते हैं। छत्तीसगढ़ के महान क्रांतिकारी और महानायक वीर नारायण सिंह इसी समुदाय से सम्बन्धित थे।
8. कमार –
यह जनजाति रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग, रायगढ़, राजनांदगांव, जांजगीर-चांपा, जशपुर, कोरिया एवं सरगुजा के वन क्षेत्रों में रहते हैं। ये अपने को गोड़ का वंशज मानते हैं। इस जनजाति के लोग झोपड़ीनुमा घर बनाते हैं। कमार पुरुष प्रायः कम वस्त्र धारण करते हैं जबकि स्त्रियां मुख्यरूप से धोती पहनती है।
9. कंवर –
इस जनजाति को कनवार के नाम से भी जाना जाता है। यह जनजाति छत्तीसगढ़ में मुख्यतः बिलासपुर, रायपुर, रायगढ़ एवं सरगुजा में बसें हुऐ है। ये अपनी उत्पत्ति महाभारत के कौरव से बताते हैं। ये राज्य की अन्य जनजातियों से कुछ विकसित या उससे अधिक शिक्षित हैं। छत्तीसगढ़ इनकी मातृभाषा है।
10. खैरवार –
यह जनजाति सरगुजा तथा बिलासपुर जिले में निवास करती हैं। कथा का व्यवसाय करने के कारण इस जनजाति का यह नाम पड़ा है। ये छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग करते हैं। इनमें साक्षरता का प्रतिशत कम है।
11. खड़िया –
ये छत्तीसगढ़ में रायगढ़ तथा जशपुर जिलों में बसे हुए है। मुंडा परिवार की खड़िया इनकी मातृभाषा है तथा ये सदरी का भी व्यवहार करते हैं। ये पूस पुत्री तथा करमा जैसे स्थानीय उत्सव मानते हैं। इस जनजाति में भी साक्षरता बहुत कम है।
12. भैना –
यह राज्य की एक आदिम जनजाति है। इनका निवास स्थान सतपुड़ा पर्वतमाला एवं छोटानागपुर पठार के बीच सघन वन क्षेत्र के मध्य बिलासपुर, रायगढ़, रायपुर एवं बस्तर जिलों में है।
13. भतरा –
ये बस्तर, दन्तेवाड़ा, कांकेर एवं रायपुर जिले के दक्षिण भारत में रहते हैं। ‘भतरा’ शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘सेवक’ होता है। अधिकांश भतरा लोग ग्राम-चौकीदार या घरेलू नौकर के रूप में काम करते हैं। ये स्थायी कृषि भी करते हैं। यह जनजाति तीन उपजातियों में विभाजित है – पिट भतरा, सन भतरा तथा अमनाईत।
14. बिरहोड़ –
बिरहोड़ का अर्थ है वन्य जाति। ये मुख्यतः रायगढ़ जिले में रहते है। ये लोग छत्तीसगढ़ी को मातृभाषा के रूप में प्रयुक्त करते हैं। ये अब अपने पूर्वजों की मुंडा भाषा को भूल गए हैं।
15. भुंजिया –
ये रायपुर जिले तक ही सीमित है। इनकी मातृभाषा भी ‘भुंजिया’ है जो बस्तर की हल्बी के बहुत निकट है। ये लोग चारों ओर से गोंड जनजाति से घिरे है। इसके बाद भी ये लोग गोंडी भाषा नहीं बोलते हैं।
16. अगारिया –
इस जनजाति का नाम – ‘अग्नि’ से सम्बन्धित है। यह जनजाति समुदाय आज भी लौह-अयस्क पिघलाने के कार्य में लगा हुआ है। ये लोग अपने को लोहार मानते हैं। राज्य में इस जनजाति का निवास क्षेत्र मुख्यतः बिलासपुर जिले में है। ये लोग मातृभाषा के रूप में छत्तीसगढ़ी का प्रयोग करते हैं।
17. आसुर –
यह जनजाति रायगढ़ और जशपुर जिलों में निवास करते है। ये लोग अपने घरों में मुंडा परिवार की भाषा ‘असुरी’ का प्रयोग करते हैं। यह जनजाति बहुत पिछड़ी है। सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से भी ये ज्यादा लाभान्वित नहीं हुए हैं। इन लोगो का गांव पहाडी भागो में बसा हुआ हैं।
18. बिरजिया –
ये मुखयतः सरगुजा जिले में निवास करते हैं। ये मुंडा परिवार की ‘बिरजिया’ भाषा के साथ ‘सदरी’ का भी व्यवहार करते हैं। ये सरहुल, करमा, फगुआ, रामनवमी आदि उत्सव मनाते हैं।
‘धनवार’ शब्द की व्युत्पत्ति धनुष’ से हुई है जिसका अर्थ है-धनुर्धारी। यह गोंड या कंवर की ही एक शाखा मानी जाती है। राज्य में इस जनजाति का निवास बिलासपुर, रायगढ़ तथा सरगुजा जिले में पाया जाता है। ये लोग मातृभाषा के रूप में छत्तीसगढ़ी का प्रयोग करते हैं।
20. धुरवा –
यह जनजाति राज्य में बस्तर जिले के बस्तर तथा सुकम विकास खंडों राक ही सीमित है। ये लोग पहले अपने आपको ‘परजा’ कहते थे। इनकी मातृभाषा ‘परजी’ द्रविड़ भाषा परिवार से संबद्ध है। ये लोग द्वितीय भाषा के रूप में ‘हल्बी’ का प्रयोग करते हैं।
21. गदबा –
इस जनजाति का निवास मुख्यतः बस्तर जिले में है। इस जनजाति के लोग पहले मुंडा परिवार की भाषा ‘गदबा’ का प्रयोग करते थे किन्तु अब ये अपनी मूलभाषा भूल चुके हैं। हल्बी ही इनकी अब मातृभाषा है।
22. कोल –
कोल मूल रूप से मुंडारी प्रजाति से सम्बन्धित है। मुंडारी में ‘कोल’ का अर्थ ‘पुरुष’ होता है। राज्य में यह जनजाति सरगुजा जिले तक ही सीमित है। ये हिन्दी की ही स्थानीय बोलियों का व्यवहार करते है।
23. कंध –
‘कंध’ शब्द द्रविड़ भाषा के ‘कोण्ड’ शब्द से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ होता हैं पहाड़ी। इन्हें ‘खोण्ड’ या ‘कोण्ड’ भी कहा जाता है। ये रायगढ़ जिले तक ही सीमित हैं. तथा पड़ोसी इन्हें कोंधिया कहा करते हैं। कंध संभवतः 200 वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में आकर बसे थे।
24. कोया –
यह जनजाति समूह बस्तर में गोदावरी नदी के किनारे बसी हुई हैं। इस जनजाति के लोग खुद को ‘दोरला’ या ‘कोयतर’ भी कहते हैं। यह समूह गोंड वर्ग से सम्बन्धित हैं। इनकी मातृभाषा का सम्बन्ध द्रविड़ भाषा परिवार से है। ये लोग हल्बी भाषा का भी व्यवहार करते हैं।
25. मझवार –
इनकी उत्पत्ति गोंड, मुंडा एवं | कंवर के वर्ण संकरत्व से मानी जाती है। ये मुख्यतः बिलासपुर जिले के कटघोरा तहसील में व्याप्त हैं। ये मातृभाषा के रूप में छत्तीसगढ़ी का प्रयोग करते हैं।
26. मुण्डा –
ये बस्तर के जगदलपुर तहसील तक ही सीमित हैं। ये बस्तर राजवंश के पारम्परिक गायक रहे हैं। ये भतरी तथा हल्बी भाषाओं का प्रयोग करते हैं। बस्तर के मुंडा आर्यभाषी है किन्तु रायगढ़ और जशपुर के मुण्डा ऑस्ट्रिक परिवार से ताल्लुक रखते हैं।
27. नगेसिया –
इनके जातीय नाम की व्युत्पत्ति ‘नाग’ (सर्प) से हुई है। ये लोग सरगुजा तथा रायगढ़ जिलों में निवास करते हैं। इस जनजाति के लोग राजमोहिनी देवी, साहनी गुरु और गहिरा गुरु के सामाजिक सुधार कार्यक्रम से प्रभावित हुए हैं। ये लोग मुण्डा भाषा परिवार की बोली के अलावा छत्तीसगढ़ी भाषा का भी व्यवहार करते हैं।
28. पाण्डो –
ये अपने को पाण्डवों के वंश से जोड़ते हैं। इनका निवास सरगुजा एवं बिलासपुर जिलों में है। ये मातृभाषा के रूप में छत्तीसगढ़ी का इस्तेमाल करते हैं। इनमें शिक्षा का अभी भी अभाव है।
29. परजा –
यह धुरवा की ही एक शाखा है। यह मुख्य रूप से बस्तर में निवास करने वाली जनजाति है। ये मातृभाषा के रूप मे ‘परजी’ का प्रयोग करते हैं।
30. सौरा –
संस्कृत साहित्य में वर्णित ‘शबर’ इनके पूर्वज माने जाते हैं। शबरों का ऐतिहासिक विवरण प्राचीन काल से ही मिलता है। ये अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ी का भी व्यवहार करते हैं। इनकी मातृभाषा मुंडा भाषा परिवार से सम्बद्ध है।
31. सौंता –
ये बिलासपुर जिले के कटघोरा तहसील तक ही सीमित हैं। बूढ़ा सौंता का पुत्र ‘बालक लोढ़ा’ इनका पूर्वज माना जाता है। इनकी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी है।
32. पारधी –
यह जनजाति मुख्यतः बस्तर जिले में निवास करती हैं। ये मुख्यरूप से आखेटक है। इनकी मातृभाषा गोंडी है। कुछ लोग हल्बी तथा अन्य आर्य भाषाएँ भी जानते हैं।
33. परधान –
परधान (प्रधान) संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है-मंत्री। परधान गोंड राजाओं के मंत्री हुआ करते थे। इन्हें पटरिया’ भी कहा जाता है। ये मुख्य रूप से रायपुर और बिलासपुर जिलों में निवास करते हैं। इनकी मातृभाषा गोंडी है जिसका सम्बन्ध द्रविड़ भाषा परिवार से है।
34. ओरांव –
ओरांव जनजाति भाषा के आधार पर द्रविड़ वर्ग की मानी जाती है। ओरांव शब्द गैर आदिवासियों द्वारा दिया गया है। ये लोग स्वयं को ‘कुरूख’ कहते हैं। यह जनजाति छत्तीसगढ़ में विशेष रूप से रायगढ़, सरगुजा और बिलासपुर जिलों में पायी जाती है। इस जनजाति के लोग धांगड़, धनका, किसान आदि नामों से भी जाने जाते हैं।