पवन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियां : landforms created by wind – पवन द्वारा निर्मित स्थलाकृति को मरुस्थलीय स्थलाकृति (Arid Topography) भी कहते हैं। प्रवाहित जल की तरह ही पवन भी भू पृष्ठ पर अपरदन, परिवहन और निक्षेपण का कार्य करता हैं। विश्व में सबसे अधिक स्थल आकृतियां पवन द्वारा निर्मित ही पाई जाती हैं। इसका विस्तार क्षेत्र अर्ध शुष्क तथा शुष्क प्रदेशों में धरातल के 30% भाग के रूप में स्थित है। इसके अंतर्गत सहारा मरुस्थल, कालाहारी मरुस्थल, एशियाई महाद्वीप के अरब, मंगोलिया तथा ऑस्ट्रेलिया के मरुस्थल आदि सम्मलित है। इसके अलावा विश्व के अनेक भागों में पवन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियां पाई जाती हैं। निम्न स्तर पर नम प्रदेशों में भी पवन अपरदन तथा निक्षेपण का कार्य करता है।
पवन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियां (अपरदनात्मक) : erosional work of wind
शुष्क तथा अर्ध शुष्क क्षेत्रों में पवन अपघर्षण, सन्नीघर्षण तथा अपवाहन क्रिया के द्वारा अपरदन कार्य होता है।
पवन के अपरदनात्मक कार्य को प्रभावित करने वाले तत्व निम्नलिखित है:-
- जलवायु,
- पवन का वेग,
- शैल संरचना,
- पवन के अपरदनकारी यंत्र,
- वनस्पति की मात्रा
वायु अपरदन द्वारा निर्मित स्थलाकृति : पवन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियां erosion Landforms created by wind
वात गर्त
रेतीले मरुस्थलीय प्रदेशों में पवन की अपवाहन क्रिया द्वारा निर्मित छोटे तथा बड़े गर्तों को वात गर्त कहते हैं। धरातल पर कोमल तथा असंगठित चट्टानों से निर्मित क्षेत्र में इस प्रकार की स्थलाकृति का निर्माण होता है। जब पवन चक्रकार रूप में चलती है तब कोमल शैल को अपवाहन क्रिया से उड़ा ले जाती है, जिससे वात गर्त का निर्माण होता है। धीरे-धीरे ये बड़े गर्त का रूप ले लेते हैं। इन गर्तों को अपवाहन बेसिन भी कहते हैं। इस प्रकार के गर्त मुख्य रूप से सहारा, कालाहारी, मंगोलिया तथा अमेरिका के पश्चिमी शुष्क प्रदेशों में पाए जाते हैं। कतारा गर्त विश्व का सबसे प्रसिद्ध वात गर्त है।
ज्यूगेन
पवन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियां में यह एक महत्वपूर्ण स्थलरूप है । मरुस्थलीय प्रदेशों में ढक्कनदार दवात जैसी संरचना को ज्यूगेन कहते हैं। इसका निर्माण कठोर तथा मुलायम चट्टानों के एक दूसरे के समानांतर स्थित होने से होता हैं। इनमें कोमल चट्टानों का अक्षय हो जाता है तथा कठोर चट्टान ज्यूगेन के रूप में उभरते हैं। स्थलाकृति का ऊपरी भाग कम चौड़ा तथा समतल होता है। इस प्रकार की आकृतियां कोलोरेडो पठार, पेंटागुनिया पठार, कालाहारी मरुस्थल में पाए जाते हैं।
छत्रक शिला
रेगिस्तानों में पवन द्वारा निर्मित मशरूम की आकृति के शैल को छत्रक शिला कहते हैं। ऐसे क्षेत्रों में मुलायम चट्टानों के अधिक और कठोर चट्टानों के कम अपरदन के परिणाम स्वरूप ये बनते हैं। इन्हें गारा भी कहा जाता है। इस तरह की आकृतियों का निर्माण पहाड़ी के निचले भाग में अधिक कटाव तथा ऊपरी भाग में कम कटाव होने से होता है।
इंसलबर्ग
मरुस्थलीय प्रदेशों में अवशिष्ट शैल या ऊंचे ऊंचे टीले पाए जाते है जो अनाच्छादन क्रिया द्वारा निर्मित होते हैं। यह पवन के अपरदन क्रिया द्वारा चिकना और गुंबदाकार आकृति के रूप में होते है। ये मरुस्थलों में कोमल चट्टानों के बीच कठोर चट्टानों के टीलो के अवशेष होते हैं। बर्नहार्ट नामक विद्वान ने सर्वप्रथम इसका अध्ययन किया था। कालाहारी रेगिस्तान में स्थित इंसलबर्ग का अध्ययन डेविस महोदय ने किया तथा बताया कि मरुस्थली अपरदन चक्र का अंतिम रूप इंसलबर्ग होता है। वह किंग महोदय इंसलबर्ग का निर्माण नदियों के अपरदन द्वारा मानते है।
भू स्तंभ या डेमोइसल्स
रेगिस्तानी क्षेत्रों में जब कोमल चट्टानों के ऊपर कठोर चट्टानों के टुकड़े पाए जाते हैं तो कठोर चट्टान के नीचे का हिस्सा बचा रह जाता है। बाकी हिस्सा अपरदित हो जाता है। जिससे स्तंभन नुमा रचना का निर्माण होता है। इसे ही भू स्तम्भ या डेमोइसल्स कहते हैं।
यारडांग
इसकी रचना ज्युगेन के विपरीत होती है। इसमें कोमल तथा कठोर चट्टानों के स्तर लंबवत दिशा में मिलते हैं। जिससे पवन कठोर चट्टानों की अपेक्षा मुलायम शैलों को शीघ्र अपरदित करके उड़ा ले जाती है। इस प्रकार के कोमल शैलो के अपरदित होकर उड़ जाने के कारण कठोर चट्टानों के भाग खड़े रहते हैं इन्हें यारडांग कहते हैं। यह पवन की दिशा के समानांतर रूप में पाए जाते हैं। इनकी ऊंचाई 20 फीट से लेकर 50 फीट तथा चौड़ाई 30 से 120 फीट तक होती है। यह मुख्य रूप से पवन के अपघर्षण से निर्मित होते हैं।
ड्राई कांटर
शुष्क क्षेत्रों में शीला खंडों के ऊपर पवन के द्वारा अपघर्षण से विभिन्न दिशाओं से खरोचे पड़ जाती हैं। जिससे शिलाखंड के टुकड़ों पर तरह-तरह की नक्काशी हो जाती है। इस तरह के शिलाखंड चतुर फलक आकृति के हो जाते हैं। ऐसे शिलाखंड को ड्राई कांटर कहते हैं।
जालीदार शिला
मरुस्थलीय प्रदेशों में जब चट्टान का निर्माण कोमल तथा कठोर चट्टानों के मिलने से होता है तो पवन कोमल चट्टानों को उड़ा ले जाती है। जिससे चट्टानों में बहुत से छिद्र का निर्माण हो जाता है। यह जालीनुमा दिखाई देने लगती हैं। इन्हीं चट्टानों को जालीदार शिला करते हैं।
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पवन द्वारा निक्षेपण कार्य से निर्मित स्थलाकृतियां : पवन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियां depositional Landforms created by wind
पवन निक्षेपण कार्य द्वारा विभिन्न प्रकार के भू स्थल आकृतियों का निर्माण करते हैं। इन स्थलाकृतियों में लोयस का मैदान मुख्यरूप से प्रसिद्ध है, जो कृषि के लिए महत्वपूर्ण होता है। पवन निक्षेपित स्थलाकृतियां निम्न हैं:-
बालुका स्तूप
रेगिस्तानी भागों में पवन द्वारा उड़ाकर लाए गए रेत के कणों को एक स्थान पर जमा करने से बालू का स्तूप का निर्माण होता है। इसकी आकृति हवा की दिशा, हवा के वेग, हवा के मार्ग में अवरोध आदि पर निर्भर करता है। मुख्य रूप से बालू का स्तूप का निर्माण बालुकामय मरुस्थल में होता है। जैसे कालाहारी, सहारा, थार आदि मरुस्थल।
आकार के आधार पर निम्न प्रकार के बालुका स्तूप होते है:-
अनुप्रस्थ बालुका स्तूप
इनका निर्माण मरुस्थल क्षेत्रों में मंद पावनो के प्रवाह से होता है। यह प्रचलित पवन के दिशा में समकोण की स्थिति में निर्मित होते हैं।
अनुदैर्ध्य या समानांतर बालुका स्तूप।
ये स्तूप पवनों की दिशा के समानांतर निर्मित होते हैं। इनकी लंबाई सैकड़ों किलोमीटर तक होती है। एक ही दिशा में पवन प्रवाहित होने वाले क्षेत्रों में इस प्रकार के स्तूपो का निर्माण होता है। इस प्रकार के स्तूपो को सिफ भी कहते हैं, जिसका अर्थ तलवार होता है। सहारा में गासी कॉरिडोर का निर्माण अनुदैर्ध्य बालुका स्तूप में ही होता है जो कारवां के लिए रास्ते का कार्य करता है।
बरखान
पवन द्वारा निर्मित चंद्राकर स्तूपों को बरखान कहते हैं। ये भी पवन की अनुप्रस्थ दिशा में स्थित होते हैं। इनके दोनों छोर सिंग की भांति पवन के समानांतर दिखाई देता है।
परवलिक बालुका स्तूप
ये स्तूप बरखान की तुलना में अधिक लंबे होते हैं। इनका निर्माण आंशिक रूप से स्थाई रेतीले भागों में होता है।
लुनेट स्तूप
इस प्रकार के स्तूप का निर्माण किसी झील या लैगून के पवनाभिमुखी भागों में होता है।
नेबखा
रेगिस्तानी तूफान में वनस्पति के अवरोध कारण निर्मित बालुका स्तूप को नेबख़ा स्तूप कहते हैं।
Pawan dwara banae Gaye apardan AVN nichhepan sthalakritiyon ka sachitra varnan Karen